Savitribai Phule Death Anniversary : देश की पहली महिला शिक्षक की पुण्यतिथि पर पढ़ें उनके जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण बातें, कैसे उन्होंने समाज के अतियाचार्य को सहते हुए शिक्षा ली

Savitribai Phule Death Anniversary 2024 : आज 10 मार्च है। अगर आप इसे कैलेंडर के लिहाज से देखेंगे तो आम दिनों की तरह ही है, लेकिन इतिहास के पन्ने पलटकर जब इस दिन को टटोलेंगे तो यह खास दिन नजर आएगा। जी हां, आज ही के दिन वर्ष 1897 में भारत की पहली महिला शिक्षक सावित्रीबाई फुले (Savitribai Phule) का निधन हुआ था। savitribai phule jayanti

बेशक उनके निधन को एक सदी से ज्यादा का समय बीत चुका है, लेकिन भारतीय समाज में उन्होंने जो योगदान दिया, उसे आज भी याद किया जाता है। सावित्रीबाई फुले अपने काम की वजह से आज भी लोगों के बीच जिंदा हैं। सावित्रीबाई फुले ने महिलाओं की समानता के लिए और उन्हें उनका हक दिलाने के लिए जो कुछ किया, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।

सावित्रीबाई फुले का जीवन परिचय – savitribai phule jivani in hindi 

Savitribai Phule

महाराष्ट्र के सतारा जिले के नयागांव में एक दलित परिवार में 3 जनवरी 1831 को जन्‍मी सावित्रीबाई फुले भारत की पहली महिला शिक्षिका थी। इनके पिता का नाम खन्दोजी नैवेसे और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्रीबाई फुले शिक्षक होने के साथ भारत के नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता, समाज सुधारक और मराठी कवयित्री भी थी। इन्‍हें बालिकाओं को शिक्षित करने के लिए समाज का कड़ा विरोध झेलना पड़ा था। कई बार तो ऐसा भी हुआ जब इन्हें समाज के ठेकेदारों से पत्थर भी खाने पड़ा।

आजादी के पहले तक भारत में महिलाओं की गिनती दोयम दर्जे में होती थी। आज की तरह उन्‍हें शिक्षा का अधिकार नहीं था। वहीं अगर बात 18वीं सदी की करें तो उस समय महिलाओं का स्कूल जाना भी पाप समझा जाता था। ऐसे समय में सावित्रीबाई फुले ने जो कर दिखाया वह कोई साधारण उपलब्धि नहीं है। वह जब स्कूल पढ़ने जाती थीं तो लोग उन पर पत्थर फेंकते थे। इस सब के बावजूद वह अपने लक्ष्य से कभी नहीं भटकीं और लड़कियों व महिलाओं को शिक्षा का हक दिलाया। उन्हें आधुनिक मराठी काव्य का अग्रदूत माना जाता है। भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई ने अपने पति समाजसेवी महात्मा ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर 1848 में उन्होंने बालिकाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना भी की थी।

इसे भी पढ़ें: Amavasya in March 2024 : मार्च 2024 में अमावस्या कब है, यह दिन पितृ पूजन के लिए क्यों है श्रेष्ठ, जाने तारीख शुभ मुहूर्त और पूजा की विधि

इस तरह शुरू हुआ सावित्रीबाई फुले के सफलता का सफर

सावित्री बाई पढ़ना चाहती थीं, लेकिन उस समय समाज में दलितों के साथ काफी भेदभाव होता था। दलितों के बच्चों को पढ़ने का भी हक नहीं था। सावित्री बाई एक दिन अंग्रेजी की किताब लेकर पढ़ने की कोशिश कर रही थीं इस दौरान उनके पिता ने देखा और किताब फेंककर उन्हें डांटा। उन्होंने सावित्रीबाई फुले को कहा कि शिक्षा सिर्फ उच्च जाति के पुरुष ही ग्रहण कर सकते हैं। दलित और महिलाओं को पढ़ने की इजजात नहीं है, क्योंकि दलितों का पढ़ना पाप है। इसके बाद सावित्रीबाई ने प्रण लिया कि वह जरूर शिक्षा ग्रहण करेंगी चाहे कुछ भी हो जाए।

सावित्रीबाई फुले का नौ साल की उम्र में हो गया था विवाह

सावित्रीबाई का विवाह बहुत ही छोटी उम्र में हो गया था। उनका विवाह महज नौ साल की उम्र में वर्ष 1940 में ज्योतिराव फुले से हुआ था। शादी के बाद वह जल्द ही अपने पति के साथ पुणे आ गईं। विवाह के समय वह पढ़ी-लिखी नहीं थीं लेकिन पढ़ाई में उनका मन बहुत लगता था। उनके पढ़ने और सीखने की लगन से प्रभावित होकर उनके पति ने उन्हें आगे पढ़ना और लिखना सिखाया।

स्कूल जाते वक्त सावित्रीबाई फुले को लोग पत्थर मारते थे 

इसके बाद सावित्रीबाई फुले ने पढ़ना शुरू किया उन्होंने हर चुनौती का डटकर सामना किया। जब वह पढ़ने स्कूल जाती थीं तो लोग उन्हें पत्थरों से मारते थे। लोग उन पर कूड़ा और कीचड़ भी फेंकते थे, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी जरूरी पढ़ाई पढ़ने के बाद उन्होंने दूसरी लड़कियों और दलितों के लिए एजुकेशन पर काम करना शुरू किया। सावित्रीबाई ने साल 1848 से लेकर 1852 के बीच लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोले थे। उन्होंने साल 1848 में महाराष्ट्र के पुणे में भारत के पहले बालिका स्कूल की शुरुआत की थी। इसके बाद उन्होंने लड़कियों के लिए एक दो नहीं बल्कि 18 स्कूलों का निर्माण कराया।

इसे भी पढ़ें: सीजन ऑफ होते ही अगर आपके गेंदे के पौधे भी मुरझा रहे है तो घबराएं नहीं, इन आसान टिप्स को अपना कर पौधो को फिर से भरे फूलों से 

9 छात्राओं के लिए पहले स्‍कूल की स्‍थापना की

सावित्रीबाई ने 3 जनवरी 1848 में पुणे में अपने पति के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के साथ महिलाओं के लिए पहले स्‍कूल की स्थापना की। एक वर्ष में सावित्रीबाई और महात्मा फुले पांच नये विद्यालय खोलने में सफल हुए। तत्कालीन सरकार ने इन्हे सम्मानित भी किया। एक महिला प्रिंसिपल के लिये सन् 1848 में बालिका विद्यालय चलाना कितना मुश्किल रहा होगा, इसकी कल्पना शायद आज भी नहीं की जा सकती। लड़कियों की शिक्षा पर उस समय सामाजिक पाबंदी थी। सावित्रीबाई फुले उस दौर में न सिर्फ खुद पढ़ीं, बल्कि दूसरी लड़कियों के पढ़ने का भी बंदोबस्त किया।

अन्य सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ भी उठाई आवाज 

सावित्रीबाई ने सिर्फ शिक्षा के लिए ही नहीं, बल्कि देश में मौजूद कई कुरीतियों के खिलाफ भी आवाजा उठाई। उन्होंने छुआ-छूत, बाल-विवाह, सती प्रथा और विधवा विवाह निषेध जैसी कुरीतियों का भी विरोध किया और इनके खिलाफ लड़ती रहीं।

अपने पति का किया अंतिम संस्कार

सावित्रीबाई के पति ज्योतिराव का निधन 1890 में हो गया। उस समय उन्‍होंने सभी सामाजिक मानदंडों को पीछे छोड़ते हुए उन्होंने अपने पति का अंतिम संस्कार किया और उनकी चिता को भी अग्नि दी। इसके करीब सात साल बाद जब 1897 में पूरे महाराष्ट्र में प्लेग की बीमारी फैली तो वे प्रभावित क्षेत्रों में लोगों की मदद करने निकल पड़ी, इस दौरान वे खुद भी प्लेग की शिकार हो गई और 10 मार्च 1897 को उन्होंने अंतिम सांस ली।