Khudiram Bose: 18 साल की उम्र में हाथ में गीता लेकर फांसी के फंदे पर चढ़ा ये क्रांतिकारी, जाने इनका पूरा इतिहास

khudiram Bose: इस साल भारत अपना 75वां स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहा है। 15 अगस्त को आजादी के वर्षगांठ पर देश के उन सभी स्वतंत्रता सेनानियों को याद किया जाता है जिन्होंने देश की आजादी के लिए खुद को कुर्बान कर दिया। उन महापुरुषों में एक नाम खुदीराम बोस का भी है, जिन्होंने सिर्फ 18 साल की उम्र में वो कर दिखाया जो हर पीढ़ी के युवाओं के लिए प्रेरणादायक है।

Khudiram Bose की 113वीं पुण्यतिथि

Khudiram Boseखुदीराम बोस की आज 113वीं पुण्यतिथि है। 11 अगस्त 1908 को बम हमलों के आरोप में खुदीराम बोस को मौत की सजा सुनाई गई थी। फांसी के वक्त उनकी उम्र 18 साल 8 महीने 8 दिन थी। आज ही के दिन 1908 में उन्हें फांसी की सजा हुई थी। अपनी शहादत के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हुए कि बंगाल में उनके नाम की धोती बुनी जाने लगीं और युवा उस धोती को पहना करते थे।

फांसी से पहले खुदीराम बोस की एक तस्वीर सामने आई थी जिसमें उनके पैरों में रस्सी तो थी लेकिन चेहरा आत्मविश्वास और देश के लिए शहीद होने के गर्व से भरा हुआ था। उस तस्वीर में करोड़ों भारतीयों के साथ-साथ उन अंग्रेज शासकों के लिए भी संदेश छिपा था कि हम भारतीय सजा-ए-मौत से घबराते नहीं हैं, हमें इससे डराने की रत्तीभर भी कोशिश मत करो।

खुदीराम बोस (Khudiram Bose) कौन थे

उनका जन्म 3 दिसंबर 1889 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में त्रैलोक्यनाथ बोस के यहां हुआ था। खुदीराम बोस जब बहुत छोटे थे, तभी उनके माता-पिता का निधन हो गया था। उनकी बड़ी बहन ने उनका लालन-पालन किया था। जब वो 15 साल के थे तब अनुशीलन समिति का हिस्सा बने थे। यह 20 वीं सदी की संस्था थी जो बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियों का प्रचार-प्रसार का काम करती थी। एक साल में ही खुदीराम बोस ने बम बनाना सीख लिया था और वे उन्हें पुलिस थानों के बाहर प्लांट करते थे।

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खुदीराम बोस स्कूल के दिनों से ही राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेने लग गए थे। वे जलसे जुलूसों में शामिल होते थे और अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ नारे लगाते थे। उन्होंने 9वीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी। जिसके बाद जंग-ए-आजादी में कूद पड़े। स्कूल छोड़ने के बाद खुदीराम रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वंदे मातरम् पैंफलेट वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

जिला मैजिस्ट्रैट किंग्सफोर्ड की हत्या का काम सौंपा गया

1908 में खुदीराम बोस के जीवन में निर्णायक पल आया जब उन्हें और दूसरे क्रांतिकारी प्रफुल चाकी को मुजफ्फरपुर के जिला मैजिस्ट्रैट किंग्सफोर्ड की हत्या का काम सौंपा गया। किंग्सफोर्ड की हत्या के पहले कई प्रयास हुए थे लेकिन सब फेल रहे।मुजफ्फरनपुर में ट्रांसफर से पहले किंग्सफोर्ड बंगाल में मैजिस्ट्रेट थे। कलकत्ता (अब कोलकाता) में किंग्सफोर्ड चीफ प्रेजिडेंसी मैजिस्ट्रेट को बहुत सख्त और क्रूर अधिकारी माना जाता था। भारतीय क्रांतिकारियों को कठोर सजा और अत्याचारपूर्ण रवैये की वजह से उनके प्रति युवाओं में गुस्सा था। क्रांतिकारियों ने उसकी हत्या का फैसला किया। इस काम के लिए खुदीराम बोस तथा प्रफुल्ल चाकी को चुना गया।

दोनों बिहार के मुजफ्फरपुर जिला पहुंचे और एक दिन मौका देखकर उन्होंने किंग्सफोर्ड की बग्घी में बम फेंक दिया। दुर्भाग्य की बात यह रही कि उस बग्घी में किंग्सफोर्ड मौजूद नहीं था। बल्कि एक दूसरे अंग्रेज़ अधिकारी की पत्नी और बेटी थीं। जिनकी इसमें मौत हो गई। इसके बाद अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लग गयी। आखिरकार वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया गया।

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पुलिस से घिरा देख खुदीराम बोस के साथी प्रफुल्ल कुमार चाकी ने तो खुद को गोली मारकर अपनी शहादत दे दी जबकि खुदीराम पकड़े गए। मुज़फ्फरपुर जेल में जिस मजिस्ट्रेट ने फांसी पर लटकाने का आदेश सुनाया था, कई रिपोर्ट्स के मुताबिक उसने बाद में बताया कि खुदीराम बोस एक शेर के बच्चे की तरह निर्भीक होकर फांसी के तख्ते की तरफ बढ़ा।

खुदीराम बोस को 11 अगस्त 1908 को दी गई फांसी

अंग्रेज सिपाहियों द्वारा गिरफ्तार होने के बाद खुदीराम बोस को 11 अगस्त 1908 को मुजफ्फरपुर जेल में फांसी दे दी गई. कुछ इतिहासकार उन्हें देश के लिए फांसी पर चढ़ने वाला सबसे कम उम्र का क्रांतिकारी देशभक्त मानते हैं. उनकी शहादत के बाद कई दिनों तक स्कूल बंद रहे और नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे जिनकी किनारी पर ‘खुदीराम’ लिखा होता था. फांसी के बाद खुदीराम बोस इतने लोकप्रिय हो गए कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे, जिनकी किनारी पर ‘खुदीराम’ लिखा होता था

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